विक्रमादित्य न्यायप्रिय और प्रजा प्रेमी राजा थे। इसलिए उनसे न्याय करवाने के लिए देवता भी स्वर्गलोक से धरती पर आए करते थे।
एक बार उन्होंने नदी के तट पर एक महल बनाने का आदेश दिया। मंत्री ने तुरंत कामगारों को काम पर लगा दिया, लेकिन एक समस्या आड़े आ गई।
राजमहल के निर्माण-स्थल के समीप ही एक बुढ़िया की झोंपड़ी थी जिसके रहते राजमहल की शोभा बिगड़ रही थी।
मंत्री ने आकर सारी बात राजा को बता दी।
राजा ने आकर बुढ़िया को बुलवाया और झोंपड़ी के बदले धन देने का प्रस्ताव रखा, लेकिन बुढ़िया बहुत जिद्दी निकली।
वह राजा से बोली, ”महाराज! क्षमा करें! आपका प्रस्ताव मुझे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है। यह झोंपड़ी मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। इसी झोंपड़ी में मैंने तमाम उम्र गुजारी है। मेरा इससे बहुत अधिक लगाव है। मैं अपनी इसी झोंपड़ी में प्राण त्यागना चाहती हूं। यह मेरे स्वर्गीय पति की एकमात्र निशानी है।”
राजा ने कुछ देर तक सोच विचार किया। फिर मंत्री से बोले, “कोई बात नहीं। इस झोंपड़ी को मत तोड़ना। जब लोग इस शानदार महल और झोंपड़ी को साथ साथ देखेंगे तो कम से कम मेरे सौंदर्यबोध और न्यायप्रियता की प्रशंसा तो किया करेंगे।”
धन्यवाद
कैसी लगी आप सब को बुढ़िया की झोंपड़ी कहानी।